वैसे तो देव भूमि हिमाचल में हर त्योहार और पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है, लेकिन अगर मैं बात करुं सराज घाटी की तो, यूं कहूं कि पर्व और त्योहारों का दूसरा नाम है सराज। सराज घाटी के अंतर्गत जंजैहली क्षेत्र में शिवरात्रि का त्योहार अनूठे ढंग से मनाया जाता है। पहले तो एक महीना पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती थी। उस समय सड़क सुविधा नही थी, और अधिकतम बर्फबारी के कारण लोगों को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था। उनके लिए कहीं भी आना-जाना मुश्किल हो जाता था। दुकानें दूर होती थी, और क्योंकि इस त्योहार को हर्षोल्लास से मनाते हैं, तो इसके लिए राशन का अधिक होना बहुत ही आवश्यक था। इस वजह से लोग खाने-पीने की सामग्री पहले ही इकट्ठा कर लेते थे, ताकि शिवरात्रि का त्योहार अच्छे ढंग से मना सकें। लेकिन जब से इस क्षेत्र में सड़क सुविधा पहुंची है, तब से लोगों के लिए काफ़ी आसानी हो गयी है।
सराज घाटी में शिवरात्रि का त्योहार मानने की प्रक्रिया कुछ अलग सी है। लोग एक दूसरे के घर-घर जाकर शिव भजन, राम भजन, कृष्ण भजन गाते हैं, जैसे मानसरोवरा भितरा फूटा कंवला रा फूल, आगे-आगे ओ सतजुगा पीछे कलजुगा आउन्ना जरूर, दूसरा भजन- सॉइ म्हारा पहुंणा आओ-आओ, हां किंधि नाचूँगी, तू नाचे माडल्ला री धुरा ओ, तीसरा भजन-खीर खंडे भोजना खाई जी तेरी जमी बधाई, इत्यादि। इस तरह से शिव भजन, राम भजन, कृष्ण भजन गाए जाते हैं, और शिवरात्रि वाले दिन एक दूसरे के घर ढोल बजा कर गाते व नृत्य करते हैं। शिवरात्रि वाले दिन बहुत ही अनुठे ढंग से पूजा अर्चना होती है। इसमें दीवार पर शिव पार्वती और शिव परिवार के चित्र बनाए जाते हैं। जिसे कोहरा कहा जाता है। चित्र के आगे एक चंदो लटकाया जाता है, जो बहुत ही खुशबूदार पतियों न्यारे, रखाले तथा कुपु से बनाया जाता है। चन्दो एक प्रकार का हार होता है और इसे बनाने की प्रक्रिया भी अलग है। इसे कई प्रकार की पत्तियां और कुपू (एक प्रकार का फल) को आपस में जोड़ कर बनाया जाता है। कुपु एक संतरे नुमा फल जैसा ही होता है, जिसका प्रयोग सिर्फ पूजा के लिए होता है। साथ में एक पूजा की चौकी पर बहुत से पकवान रखें जाते हैं। रोट, रंगतोलूं भले, आटे की बकरू, हलवा, और भी बहुत से पकवान रखे जाते हैं, और न्यारे की पत्तियों को अँगारे पर रख कर जलाया जाता है। इसकी खुशबू सारे वातावरण में फैल जाती है। न्यारे के पत्ते के प्रकार का प्राकृतिक धूप होता है, जो वातावरण को शुद्ध करने के लिए जलाया जाता है।

तत्पश्चात अगले दिन, अमृतबेला के समय अर्थात 4:00 बजे के करीब इस चंदो को बाहर निकाला जाता है, और पूर्व दिशा की ओर लगाया जाता है। यह चन्दो पूरी साल वहीं लटका रहता है। अगले दिन, आस पड़ोस में रात के बनाए पकवान बाँटे जाते हैं। यहां एक और भी रिवाज है कि जब तक अपने बेटियों को रोटियां ना पहुँचाए जाएँ, तब तक यह त्योहार अधूरा सा माना जाता है। रोटियों की एक टोकरी बेटियों के घर पहुचाई जाती है, जिसे छाबडा कहा जाता है। छाबड़ा में रोटियां, भल्ले, बाबरू, और भी पकवान साथ में होते हैं। तो इस तरह से मनाया जाता है सराज की जंजैहली तथा आसपास के क्षेत्रों में शिवरात्रि का त्योहार।

















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